वर्तमान संदर्भ में असहमति को लोकतंत्र की खूबसूरती कहना बेमानी : सैयद खालिद कैस

 

भोपाल। भारत में संविधान निर्माण और उसके पालन के बाद असहमति और अभिव्यक्ति का अधिकार, लोकतंत्र में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बुनियादी मूल्य माने जाते थे, परंतु वर्तमान संदर्भ में इसकी परिभाषा अब निरंतर बदलती जा रही है। जिस प्रकार असहमति पर प्रहार हो रहे हैं उससे तो लगभग यही साबित हो रहा है कि वर्तमान लोक तंत्र में सरकार की नीति, निर्देश और कार्ययोजना पर सहमति होना ही पत्रकारिता का ध्येय रह गया है। सरकार की नीति पर असहमति का अर्थ है विभिन्न स्तरों से संविधान द्वारा प्रदत्त अनुच्छेद 19(1)(क) में मूल अधिकार के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर निरंतर आघात।

निसंदेह मेरे इस तर्क को वे सभी पत्रकार जो इससे सबसे रूबरू हुए होंगे वह परिचित होंगे और यह भी स्पष्ट है कि मेरे विचार से पत्रकारिता जगत का एक बहुत बड़ा वर्ग संभवत: जो सरकार की चाटुकारिता को ही सच्ची पत्रकारिता समझते हैं वे सहमत नही होंगे।

 

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में न्याय की अंतिम आवाज न्यायालय को माना जाता है। अभिव्यक्ति की क्या सीमा हो और असहमति का क्या स्तर हो वर्तमान के अनेक संदर्भो में इस पर भी चिंतन और मनन जरूर होना चाहिए। इसी विचार को दृष्टिगत रखते हुए यदि हम आत्म चिंतन करें तो पाएंगे कि मौजूदा सरकार के समक्ष लोकतंत्र के चारों स्तंभ नतमस्तक नज़र आ रहे हैं। यह कदापि नहीं कहा जा सकता कि मौजूदा सरकार न्यायपालिका जैसे महत्वपूर्ण स्तंभ का उसी प्रकार पालन कर रही है जैसे 2014 से पूर्व की सरकारें करती आई हैं। मुझे भली-भांति याद है कि यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने पहली बार सत्ता संभालने के एक माह बाद अर्थात जून 2014 में कहा था, ‘अगर हम बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं देंगे तो हमारा लोकतंत्र नहीं चलेगा। आज 08साल बाद यदि हम आंकलन करें तो पाएंगे कि उनकी कथनी और करनी में फर्क नज़र आता है। आज बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी संदेहास्पद है। कब किस बात पर सरकार की नाराज़गी का ठीकरा सिर पर फूट जाए इसकी कोई गारंटी नहीं है। पिछले आठ साल के कार्यकाल में हम सैकड़ों मामले देख चुके हैं जिसमें बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करने वाले पत्रकारों को सरकार के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा। आज लोकतंत्र की परिभाषा सरकार के बनाए मापदंड के आधार पर बनती बिगड़ती रहती है।

 

गौरतलब है कि भारतीय परिदृश्य में लोकतंत्र में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बुनियादी मूल्य है और संविधान में इन्हें कहीं अधिक महत्व दिया गया है। इसी संविधान के भीतर अनुच्छेद 19(1)(क) में मूल अधिकार के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निहित है। सरकार की किसी भी नीति पर सहमति और असहमति लोकतंत्र के दो महत्त्वपूर्ण अंग हैं। मूल अधिकारों के दमन की स्थिति में अनुच्छेद13 के अंतर्गत न्यायिक पुनर्विलोकन के तहत लोगों को सर्वोच्च न्यायालय रक्षा कवच देता है। जिसका उपयोग समय पर होता देखा गया है जहां सरकार के विपरीत विचार व्यक्त करने वालों को यू ए पी ए का सामना करना पड़ा तो सरकार के लाडलों को कैसे और किस तरह न्याय दिलाया गया इसकी जीती जागती मिसाल अर्णव गोस्वामी एपिसोड है।खैर मेरा किसी व्यक्ति विशेष पर कोई आक्षेप नही है परंतु मेरा प्रयास केवल वर्तमान संदर्भ को परिभाषित करना मात्र था।

 

लोकतंत्र में सहमति के साथ असहमति भी हो सकती है, मगर इसका तात्पर्य न तो अपराध है और न ही राजद्रोह है। देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय पहले भी कह चुका है कि सरकार से असहमत होना राष्ट्र से विरोध नहीं है। कानून का राज कायम करने के लिए यह जरूरी है कि लोकतंत्र की मर्यादा को अक्षुण्ण रखा जाए। और कोशिश यह की जाए कि असहमति के नाम पर किसी के संवैधानिक अधिकारों का हनन न हो।

 

गत दिनों सर्वोच्च्य न्यायालय ने हेट स्पीच पर प्रहार करते हुए सरकार को इस पर रोक लगाने के निर्देश के साथ अपना पक्ष नवंबर माह में रखने की भी बात कही है। परंतु मौजूदा सरकार हेट स्पीच पर अंकुश के स्थान पर सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर अंकुश लगाने का मन बना रही है उससे कोई अनभिज्ञ नहीं है। आज जिस तरह से इंटरनेट मीडिया सुगमता से लोगों की पहुंच में है, वह अभिव्यक्ति की असीम ताकत बन गई है। जिसके माध्यम से समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग जिसमे निष्पक्ष पत्रकारिता का झंडा उठाए क्रांतिकारी पत्रकार निरंतर असहमति के द्वारा सरकार की कथनी ओर करनी पर चोट कर रहे हैं वह भी किसी से छिपा नहीं है। और यह भी स्पष्ट है कि वही मुट्ठी भर सरकार के हमेशा निशाने पर रहते हैं। जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान संदर्भ में असहमति को लोकतंत्र की खूबसूरती कहना बेमानी सा लगने लगा है।