मुश्किल हालातों में मन सरोवर में उथल-पुथल!

जब छात्र JEE/NEET जैसे कठिनतन इम्तिहानों की तैयारी के प्रारंभिक पायदान में होते हैं तो चाहे स्वयं तैयारी करें या विभिन्न इंस्टीटूशन्स में दाखिला लेकर तैयारी करें उन्हें शुरू से ही असली परीक्षा के प्रारूप में प्रश्न पूछे जाते हैं तब पढ़ाई में होशियार से होशियार बच्चों को भी शुरू-शुरू में प्रश्नों को देखकर ऐसा लगता है जैसे उनके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं। पेपर में पूछे गए शुरू के 4-5 प्रश्नों का उत्तर ना बने तो छात्र का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है फिर उसके बाद के प्रश्नों के बारे में कुछ जानकारी हो भी तब भी सब गुड गोबर हो जाता है। ये अजीब सी मनः स्थिति होती है इसीलिए तजुर्बेदार लोग सलाह देते हैं कि उन्हें अपने आत्मविश्वास को कमज़ोर नहीं करना है नहीं तो सब बेकार हो जायेगा। इसलिए अपनी तरफ़ से गंभीरतापूर्वक प्रयास करते हुए जब किसी इम्तिहान में बैठते हैं तो ये बिल्कुल नहीं सोचना है कि “बाकी सभी मुझसे होशियार होंगे सबसे बन रहा होगा, एक मैं ही हूँ जिसे कुछ नहीं आ रहा।” इस तरह के विचार हमें हीन भावना से भर देते हैं, हताश करते हैं, निराश करते हैं और अग्रसर होने में बाधक होते हैं। अभी वर्तमान में मेरे सामने मेरे अपने बच्चों की मनः स्थिति और उस उम्र के और बच्चों के मनोभावों का अवलोकन करते हुए गहराई से चिंतन करने पर यही पता चलता है कि जीवन के इम्तिहान भी हूबहू इन्हीं प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे ही होते हैं। जब तक सब ठीक चलता है कुछ पता नहीं चलता, समय सहजतापूर्वक बीतता जाता है लेकिन मुसीबत बता कर नहीं आती वह अचानक धमकती है और इंसान को अजीबोगरीब हालात में खड़ी कर देती है। अब हालात का सामना करते हुए मनुष्य विभिन्न विकल्पों के बारे में चिंतन करता है, उसे समझ नहीं आता क्या हो गया अब क्या किया जाये। अचानक आयी परिस्थिति से अनभिज्ञ मनुष्य के मन सरोवर का जल बेहद अशांत हो जाता है और फिर उसके अंदर मंथन चले भी तो उन विचारों की छबि विकृत व अस्पष्ट होती है। निष्कर्ष तक पहुँचने लायक कुछ भी नहीं सूझता और यही वो बिंदु है जब ख़ुद्दार से ख़ुद्दार इंसान जिसने कितना भी संघर्ष झेला हो, कितने भी कठिन इम्तिहानों में उत्तीर्ण हो चुका हो व अपने ज्ञान और क्षमताओं के बारे में आश्वस्त हो उसका भी आत्मविश्वास डगमगाने सा लगता है। और यह एक गंभीर चिंता की स्थिती होती है, इसीलिए कुछ लोगों को यह हालत अवसाद और आत्मघाती प्रयासों की ओर ले जाता है। अब तो उसे बेहद एकाग्रता की आवश्यकता होती है या उसके साथ पूर्ण समर्पण के साथ खड़े होने वाला कोई अपना हो जो उसे लगातार उत्साहित रखने में लगा हो और वर्तमान को अस्थाई स्वीकार करते हुए पीड़ित के मन में उम्मीद की किरण जगाये, उनकी क्षमताओं की याद दिलाते रहे कि वे क्या हैं व क्या-क्या कर सकते हैं। ईश्वर की लीलाओं का भी उल्लेख करें कि शायद इस चुनौती के लिए विधाता ने उनके जैसे फौलादी का चयन किया क्योंकि जो वे कर सके, वो कोई और न कर पाये। इसलिए स्वयं को किसी से कम न समझे। इस प्रकार मन से निराशा के भावों को हटा कर उन विकल्पों में लगाना पड़ता है जिसके बारे में पूर्ण भान हो और धीरे-धीरे इन बाह्य उत्प्रेरकों व स्वयं के प्रयास से आत्मविश्वास को वापस कायम करते हुए अंदर दृढ़ संकल्प लेना पड़ता है कि कठिनतम परिस्थिति से निबटने के लिए कमर कसी जाये और नियमित साधना द्वारा मन को स्थिर किया जाये, हीन भावनाओं से मुक्त किया जाये और हौसला रखते हुए तमाम अवरोधों को काटते हुए प्रवाहमय रहा जाये। बस “अब तो जीतना ही है” का संकल्प कर तन मन से लग जायें फिर तो वो दिन दूर नहीं जब आप ईश्वर द्वारा आपके हिस्से की सभी इनायतों से जरूर नवाज़े जायेंगे जो उन्होंने खास आपके वास्ते बिल्कुल सही वक़्त व जरूरत के मुताबिक देने के लिए महफ़ूज रखा था।

 

  • शशि दीप ©✍
  • विचारक/ द्विभाषी लेखिका
  • मुंबई
  • shashidip2001@gmail.com