मध्य प्रदेश उप चुनाव 2020: परिणाम विश्लेषण
ज्योतिदित्य सिंधिया: नाक के सवाल में गढ़ गया, बच गया नाम
पंकज शुक्ला, 9893699941
प्रदेश की 28 सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा के खाते में 19 और कांग्रेस के खाते में 9 सीटें गईं हैं। इस ऐतिहासिक जीत में जितनी चर्चा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ के चुनाव अभियान की हुई उससे अधिक बड़ा सवाल कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया की प्रतिष्ठा का है। भाजपा के जीत के जश्न में यह सवाल रह रह कर उठ रहा है कि सिंधिया ने क्या हासिल किया है? गहराई से पड़ताल करें तो पाते हैं कि भाजपा की जीत ने सिंधिया की नाक तो बचा ली लेकिन उनका गढ़ चला गया है। कांग्रेस ने वांछित सीटें भले ही नहीं जीती हों लेकिन उसने सिंधिया के गढ़ कहे जाने वाले ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में भाजपा को चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
2018 में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद भी ज्योतिरादित्य सिंधिया 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट से अपनी पारंपरिक सीट गुना से हार गए थे। यह हार उन्हें पची नहीं। ऐसे में बीजेपी में शामिल होने के बाद उनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती ग्वालियर और चंबल क्षेत्र में अपने दबदबे का दिखाना था। जिन 22 कांग्रेस विधायकों को वे अपने साथ भाजपा में ले गए थे उनकी जीत के साथ खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया की प्रतिष्ठा भी जुड़ी थी।
परिणाम बता रहे हैं कि उपचुनाव में भाजपा की तो शानदार वापसी हुई है, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने ही गढ़ में कमतर साबित हुए हैं। यह पहला मौका था जब ग्वालियर चंबल में ‘सिंधिया गद्दार है’ के न केवल नारे गूंजे बल्कि जीत के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित समूची भाजपा को पूरी ताकत लगानी पड़ी। जबकि होना यह था कि सिंधिया के प्रभाव से उनके गढ़ की सभी तेरह सीटें लड्डू की तरह आसानी से भाजपा की झोली आ गिरनी थीं। मगर ऐसा नहीं हुआ। तेरह में से भाजपा के खाते में महज छह सीट ही आईं। क्षेत्र में चुनाव मैदान में उतरे छह मंत्रियों में से तीन को हार भी झेलना पड़ी है। इतना ही नहीं बसपा नहीं होती तो पांच सीट और कांग्रेस के खाते में जाती। सबसे तगड़ा झटका सबसे करीबी मंत्री में शुमार इमरती देवी की हार के रूप में लगा है। इमरती देवी 2018 में कांग्रेस के टिकट पर बार 55 हजार वोटों से जीती थीं। कमल नाथ का सिर काटने की बात कहने वाले वाले मंत्री गिर्राज दंडौतिया और मंत्री ऐदल सिंह कंसाना भी हार गए हैं। जबकि कमलनाथ के विवादित बयान के बाद सिंधिया ने इमरती देवी की हार जीत से खुद की हार जीत जोड़ ली थी।
अब बात सिंधिया समर्थक उन प्रत्याशियों की जो जीत कर विधानसभा में पहुंचे हैं। सबसे करीबी मंत्री तुलसी राम सिलावट इस बार 53 हजार 264 वोटों से जीते हैं जबकि 2018 में कांग्रेस के टिकट से वे मात्र 2945 वोटों से जीते थे। सुरखी से गोविंद सिंह राजपूत 40991 वोटों से जीते जबकि 2018 में वे कांग्रेस के टिकट से 21,418 वोट से जीते थे। इन दोनों नेताओं की इतने बड़े अंतर से जीत का कारण केवल सिंधिया का नाम नहीं है बल्कि भाजपा और शिवराज सिंह चौहानका काम है। इंदौर जिले की सीट सांवेर में सिलावट की स्थिति कमजोर देख कर भाजपा ने कैलाश विजयवर्गीय की देखरेख में विधायक रमेश मंदोला को जिम्मा दिया था। सुरखी में बुंदेलखंड के नेता भूपेंद्र सिंह को मोर्चा संभालना पड़ा। राम शिला यात्रा और कलश यात्रा जैसे भाजपा के परंपरागत तरीकों ने गोविंद सिंह राजपूत और सिलावट के चुनाव अभियान को ताकत दी थी। अन्य समर्थक मंत्री महेंद्र सिंह सिसौदिया 2018 की जीत 27,920 से लगभग दुगने यानि 53,153 मतों के अंतर से जीते। चुनाव प्रचार के चरम पर कोरोना संक्रमित होने के बाद वे ट्वीट कर अपने प्रचार का कार्यकर्ता सार्वजनिक रूप से भाजपा के कार्यकर्ताओं को दे कर गए थे। भांडेर में कांग्रेस छोड़ कर बसपा में गए महेंद्र बौद्ध त्रिकोणीय मुकाबला नहीं बनाते तो दलित नेता फूलसिंह बरैया आयानी से जीत जाते। उन्हें सिंधिया समर्थक रक्षा सिरौनिया ने मात्र 161 वोट से हराया जबकि 2018 में 39,896 वोटों से जीती थी।
भाजपा के 19 सीटों को जीतने के पीछे यदि कोई कोण रहा तो वह है बसपा की मौजूदगी। बसपा ने कोई सीट नहीं जीती मगर कांग्रेस के सपने को बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है। 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41.0, कांग्रेस को 40.09 और बसपा को 5 प्रतिशत वोट मिले थे। उपचुनाव 2020 में भाजपा को 49.46, कांग्रेस को 40.50 और बसपा को 5.75 प्रतिशत वोट मिले थे। अपने वोट शेयर में मामूली बढ़त पाकर बसपा कांग्रेस के लिए वोट कटवा साबित हुई है। यदि बसपा को कांग्रेस ने हल्के में नहीं लिया होता तो कम अंतर से जीती गई 5 सीट भाजपा के खाते में जानी मुश्किल थी।
आंकड़ों और चुनाव अभियान का यह विश्लेषण बताता है कि भाजपा की जीत में भूमिका एक सामान्य नेता जितनी ही रही है। सिंधिया का किला बचाने का असल काम तो टीम भाजपा, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी रणनीति ने किया है।