(परवेज़ इक़बाल)

भारत सहित दुनिया के तमाम देश कोरोना जैसी महामारी से पीड़ित हैं। महामारी कोई जाति/धर्म/मज़हब देख कर नहीं आती। विभिन्न धर्मों के संस्थापकों/प्रचारकों के समय भी महामारियां होती रहीं हैं इसलिए लगभग सभी धर्मों में महामारियों से बचने के उपाय सुझाये गए हैं यह अलग बात है कि इनमें से ज़्यादातर धार्मिक उपाय ही सामने आ पाते हैं लेकिन इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं कि उस धर्म/मज़हब में इनका कोई सामाजिक उपाय न हो। हो सकता है इसके पीछे कुछ धर्मगुरु/मज़हबी रहनुमाओं की यह सोच हो कि लोगों को हर समस्या का धार्मिक/मज़हबी तरीके के समाधान बताने से उनकी धार्मिक दुकान चलती रहेगी।
बहरहाल भारत मे जब से कोरोना फैला है तब से मध्यप्रदेश के इंदौर सहित कई जगहों पर मुस्लिम समाज मे कोरोना पोजेटिव की संख्या अधिक देखने को मिल रही है। हाल ही में दिल्ली निज़ामुद्दीन में मरकज़ का मामला भी काफी तूल पकड़ा हुआ है। जिसके बाद मुस्लिम सहित दीगर लोगों में महामारी के वक्त इस्लाम के सामाजिक प्रावधानों पर बहस चल पड़ी है हालांकि कोरोना पर प्रशासन की एडवाइजरी जारी होने के बाद से ही मुस्लिम विद्वानों ने मस्जिदों में सामूहिक नमाज़, जुमा सहित किसी भी सामूहिक धार्मिक आयोजन पर रोक लगाने की घोषणा पहले ही कर दी है और मस्जिदों में सामूहिक नमाज़ से लेकर पवित्र क़ाबा पर दिन रात निरन्तर जारी रहने तवाफ़(परिक्रमा) तक बन्द की जा चुकी है। लेकिन कुछ धर्मांध कठमुल्लों और उनके अनुयायियों सहित कुछ अशिक्षित लापरवाह लोगों ने लॉकडाउन सहित तमाम एहतियाती कदमों के मज़ाक बना कर रख दिया है। मुस्लिम इलाकों में आवाजाही सहित झुंड बनाकर ओटले आबाद करने का चलन अब भी जारी है। मैं यह नहीं कहता कि यह सिर्फ मुस्लिम मोहल्लों में ही हो रहा है। दीगर गैर मुस्लिम इलाकों में भी यह नज़ारा आम हो सकता है लेकिन मैं यहां सिर्फ महामारी पर इस्लामी पहलू से बात करना चाहूंगा।
चूंकि इस्लाम मे महामारी को खुदा का अज़ाब( इंसान के कुकर्मों पर ईश्वर की नाराज़गी) समझा जाता है लिहाज़ा
कोरोना जैसी महामारी पर विभिन्न धर्मों की तरह इस्लाम मे भी धार्मिक उपाय सुझाये गए हैं। लेकिन इसके साथ ही इस्लाम मे महामारी के दौरान सामाजिक उपाय का भी इतिहास मिलता है जिसमें सामाजिक जीवन मे बदलाव लाने तक के प्रावधान शामिल हैं।
इस्लाम में पैगम्बर साहब के जीवनकाल की कुछ घटनाएं, उनके कहे कथन(हदीस), और कुरान की आयतों में महामारी से बचने के लिए आज अपनाए जा रहे सामाजिक उपाय जैसे लॉकडाउन, संक्रमण से बचने के लिए सोश्यल डिस्टेंसिंग आदि के उदहारण मौजूद हैं जो इन उपायों का समर्थन करते हैं।
पैगम्बर मोहम्मद(सल्ल.) ने स्पष्ट फरमाया है कि – जिस ज़मीन(देश-प्रदेश) में वबा(महामारी) फैल जाए तुम उस जगह न जाओ, और तुम जहां रहते हो अगर वहां वबा फैल जाए तो तुम उस जमीन को छोड़ कर कहीं न जाओ” । यानी मोहम्मद साहब का स्पष्ट कहना है कि महामारी फैलने पर इंसान महामारी वाली जगहों पर नहीं जाना चाहिए और न ही स्वस्थ प्रदेशों/शहरों से किसीको महामारी वाली जगहों पर यात्रा करनी चाहिए। पैगम्बर साहब का यह आदेश स्पष्ट तौर पर लॉकडाउन की बात ही कहता है। इसी के साथ पैगम्बर साहब यह भी कहते हैं कि-“किसी बीमार ऊंट को स्वस्थ ऊंट के पास न लाओ और किसी बीमार व्यक्ति को स्वस्थ व्यक्ति के सम्पर्क से दूर रखो”
एक और जगह पैगम्बर साहब फरमाते हैं-“कोढ़ी से उसी तरह दूर रहो जिस तरह तुम शेर से दूर रहते हो” यहां कोढ़ को महामारी का प्रतीक समझा जाए तो पैगम्बर साहब का कहना था कि जिस तरह शेर से तुमको जान का खतरा है उसी तरह महामारी से ग्रसित व्यक्ति से भी तुम्हे जान का खतरा है। इस कथन से सोश्यल डिस्टेंसिंग का स्पष्ट सन्देश मिलता है कि पैगम्बर साहब ने क़ोम को महामारी में सोश्यल डिस्टेंसिंग के आदेश दिए हैं। इतना ही नहीं महामारी के वक्त पैगम्बर साहब ने घरों को टाट के परदों से ढांकने तक के आदेश दिए हैं । महामारी से ग्रस्त व्यक्ति को पैगम्बर साहब ने तीर से रोटी देने का हुक्म दिया यानी महामारी से पीड़ित व्यक्ति के पास जाने से मना करते हुए उसे खाना भी दूर से देने का हुक्म दिया गया है।
पैगम्बर साहब के समय की एक घटना है कि एक बार सकेफ़ कबीले का प्रतिनिधिमंडल
धार्मिक निष्ठा का प्रदर्शन करने के लिए पैगम्बर साहब के दर्शन के लिए आ रहा था तभी किसी दूत ने पैगम्बर साहब को यह संदेश दिया कि उस प्रतिनिधिमंडल में एक व्यक्ति कोढ़ की बीमारी से पीड़ित है तब पैगम्बर साहब ने फौरन उस प्रतिनिधिमंडल को सन्देश भिजवा दिया कि-“हमने तुम्हारी बैत (धार्मिक निष्ठा) को वहीं से स्वीकार कर लिया तुम यहाँ दर्शन के लिए मत आओ और जहां हो वहीं से अपने कबीले को लौट जाओ”। यह घटना महामारी के समय यात्रा से बचने का स्पष्ट सन्देश देती है।
अगर हम इस्लाम मे आइसोलेशन की बात करें तो पैगम्बर साहब के समय उनसे एक ऐसे काबिले का प्रतिनिधिमंडल मिलने आया जिनके पेट बहुत फूले हुए थे मालूमात करने पर पता चला कि उन सभी को यह सामूहिक बीमारी है तब पैगम्बर साहब ने उन सभी पीड़ितों को आबादी से दूर एक अलग जगह रहने खाने का इंतज़ाम किया और उन्हें कुछ उपचार बताए और उनके ठीक होने तक उन्हें आबादी से दूर ही रखा। इस घटना से यह साबित हो जाता है कि इस्लाम मे महामारी के समय आइसोलेशन की प्रक्रिया का प्रावधान अपनाया जाता था ।
कोरोना के चलते मस्जिदों में सामूहिक नमाज़ पर रोक पर बातें बनाने वालों को शायद पता नहीं कि पैगम्बर साहब ने खुद आपात स्थिति में मस्जिद में सामूहिक नमाज़ अदा करने से छूट देते हुए घरों में नमाज़ अदा करने का हुक्म दिया है। एक बार नमाज़ के वक़्त बहुत तेज़ बारिश हो रही थी तब पैगम्बर साहब ने अज़ान (नमाज़ के लिए मस्ज़िद से लगाई जाने वाली सदा) देने वाले हज़रत बिलाल (रजी.) से कहा कि वो अज़ान में “सल्लू फी बुयुतिकुम” शब्द जोड़ दें जिसका अर्थ हैं अपने घरों में नमाज़ अदा करो। इस घटना से स्पष्ट सन्देश मिलता है कि आपात स्थिति में घर मे नमाज़ अदा करने में कोई हर्ज नहीं है इसके अलावा पैगम्बर साहब ने बीमार आदमी को भी घर मे नमाज़ पढ़ने का हुक्म दिया है । हज़रत इब्ने माजा से रिवायत है कि अल्लाह के नबी ने फरमाया कि- “किसीको नुकसान पहुंचाना या एक दूसरे को नुकसान पहुंचाना जायज़ नहीं”। इस्लाम मे छुआ-छूत के लिए ‘अदवा’ लफ्ज़ का इस्तेमाल किया गया है। कुरान के पहले पारे की सूरह-बक़र की आयत नम्बर 195 में अल्लाह कहता है कि-“अपने आप को जानबूझ कर विनाश में, तबाही में मत डालो”।
मास्क पहनने की भी अगर हम बात करें तो मजमुआ फतावा इब्ने-उसेमिन 22/130,131 में स्पष्ट कहा गया है कि-“किसी बीमारी,किसी एलर्जी, बदबू या घने धुवें से बचने के लिए मास्क पहनने में कोई बुराई नहीं है ।
महामारी सहित आपातस्थिति में मस्जिद में सामूहिक नमाज़ का फैसला करते वक़्त 16/7/1441 हिजरी को सऊदी अरब में उलेमाओं (इस्लामी धर्मगुरुओं) के बैठक के निर्णय क्रमांक 246 में साफ तौर ऐसी स्थितियों में सम्बंधित प्राधिकारियों द्वारा जारी दिशा-निर्देशों का पालन करने की सिफारिश भी की गई है।
लॉकडाउन के चलते घरों से बेज़रूरत निकलने वाले घर के कुछ गैर ज़रूरी सामान के लिए विचलित होने वाले मुसलमानों को जंगे-खन्दक की वो घटना भी याद रखना चाहिए जब उस दौर में मदीना वाले मदीना से बाहर नहीं जा सकते थे तब पैगम्बर साहब ने मदीना के नागरिकों से अपनी खुराक आधी कर कम खाने का हुक्म दिया था ताकि मौजूदा राशन को ज़्यादा दिन इस्तेमाल किया जा सके। इसके अलावा जो क़ोम पूरे 30 दिन रोज़े रखती हो जिसमें 14-16 घण्टे भूखे-प्यासे रह कर खुदा की इबादत की जाती है भला वो क़ोम कैसे दूध राशन के लिए इतनी विचलित हो सकती है कि खुद अपनी और अपने परिवार सहित समाज की जान दांव पर लगा कर समान की तलाश में सड़कों पर झुंड बना कर निकल पड़े। जिस क़ोम में एतेक़ाफ़ (बगैर खुले आसमान के नीचे आये 10 दिन तक खुदको मस्जिद में रख कर इबादत करने की परंपरा) का चलन हो वो चंद दिंनो में ही घर मे रहकर कैसे विचलित हो सकती है ? यकीनन ज़रूरत सबकी होती है लेकिन हम कियूं भूल जाते हैं कि कुर्बानी इस्लाम का अभिन्न अंग है फिर चाहे वो कुर्बानी अपनी भूख,प्यास और इच्छाओं की ही कियूं न हो ।
कुल मिला कर आज कोरोना के चलते मास्क लगाने, लॉकडाउन, सोश्यल डिस्टेंसिंग, आइसोलेशन, घर मे नमाज़, और शासकीय प्रयासों में असहयोग करना पूरी तरह गैर-इस्लामी और पैगम्बर मोहम्मद सल्ल. की भावनाओं के खिलाफ है । जो लोग इस महामारी से लड़ने की जंग में लापरवाही बरत रहे हैं वो न सिर्फ इंसानियत के दुश्मन हैं बल्कि अल्लाह और उसके रसूल की नाफरमानी भी कर रहे हैं और उन्हें दुनिया के साथ साथ आख़ेरत में भी यकीनन सज़ा मिलेगी ।
(परवेज़ इक़बाल) सम्पादक:- राष्ट्रीय जनमत(CEO- ज़ाहिर सूचना)