राकेश दुबे की क़लम से
अंग्रेजी में लिखी गई एक बात हिंदी में कुछ इस तरह अनुवाद की गई है “नाम में क्या रखा है”। यह बात इन दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह पर लागू होती है। कभी महाबली कह लाने वाले दिग्विजय सिंह को अब लगने लगा है कि वे कांग्रेस में ही कांग्रेस से हारते जा रहे हैं। उन्होंने भले ही व्यंग में स्वीकार किया हो, पर स्वीकार किया कि उनके भाषणों से कांग्रेस को नुकसान पहुंचता है इसलिए उन्होंने प्रचार से दूरी बना ली है। भोपाल में कार्यकर्ताओं से दिग्विजय ने कहा, ‘‘जिसको टिकट मिले, चाहे दुश्मन को मिले, जिताओ, मेरा काम केवल एक, कोई प्रचार नहीं, कोई भाषण नहीं। मेरे भाषण देने से तो कांग्रेस के वोट कट जाते हैं, इसलिए मैं जाता नहीं।’’
कहने को दिग्विजय मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की समन्वय समिति के अध्यक्ष हैं, लेकिन वे पर्दे के पीछे ही सक्रिय हैं। राज्य में अभी मुख्य रूप से कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ही सक्रिय रूप से प्रचार करते नजर आ रहे हैं। पिछले दिनों राहुल गाँधी की भोपाल में सभा और अब ग्वालियर का दौरा दोनों जगह कार्यक्रम स्थल के बाहर राज्य में दूसरी पंक्ति के नेताओं तक के कटआउट लगे थे, लेकिन दिग्विजय के कटआउट नदारद थे। भोपाल के मामले पर कमलनाथ ने उनसे सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी ली थी। दिग्विजय सिंह के इस ताज़ा बयान के बाद सारी कांग्रेस इस तरह से चुप है, जैसे उसे इस बात का इंतजार ही था।
भाजपा दिग्विजय के इस बयान को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है। दिग्विजय के इस बयान को मौके की तरह लपक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा, ‘‘कम से कम कांग्रेस के लोग अपने नेता की इज्जत करें। मैंने कभी नहीं सोचा था कि कांग्रेस दिग्विजय सिंह की यह दुर्दशा करेगी।’’ वहीं, कमलनाथ ने पल्ला झाड़ते हुए कहा, धीरे से कहा ‘‘मैं नहीं जानता कि उन्होंने किस संदर्भ में यह बयान दिया।’’
वैसे गोवा चुनाव के बाद भाजपा की सरकार बनने के बाद से दिग्विजय के सितारों पर गुटबाजी का ग्रहण लगना शुरू हो गया था। अब कल उसमें गोवा के 2 कांग्रेस विधायकों ने भाजपा में शामिल होकर दिग्विजय को नेपथ्य में धकेल रहे लोगों के हाथ मजबूत कर दिए हैं। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के गठ्बन्धन न होने का ठीकरा भी दिग्विजय के सर पर ही फूटा था। बसपा प्रमुख मायावती ने दिग्विजय पर भाजपा और संघ का एजेंट होने का आरोप लगाया था। मायावती ने कहा था कि राहुल-सोनिया राज्य में बसपा से गठबंधन चाहते थे, लेकिन दिग्विजय जैसे नेताओं के चलते गठबंधन नहीं हो सका।
दिग्विजय सिंह की इस स्वीकारोक्ति को कांग्रेसी खेमे में गुटबाजी के तौर पर देखा जा रहा है। कांग्रेस में गुटबाजी चरम पर है और इसमें भी निशाने पर दिग्विजय ही हैं क्योंकि उनके जिम्मे “समन्वय” का काम है। ऐसे लोगों के समन्वय का जिनकी पहली प्राथमिकता आपसी संघर्ष और दूसरी भाजपा से नूराकुश्ती है। भाजपा भी यही चाहती है, जो इस यादवी संघर्ष में जो दमदार दिखे उसको “सौजन्य का पान” खिला दे। पिछले 15 साल से प्रदेश कांग्रेस के नेता भाजपा का “सौजन्य पान” खाकर मस्त हैं और नूराकुश्ती कर विधानसभा चुनाव में वाकओवर दे देते हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार