कौशल किशोर चतुर्वेदी की फेसबुक वाल से –
इक्कीसवी सदी में भारतीय राजनीति ने महत्वपूर्ण बदलाव देखे हैं। वक्त गवाह रहा है कि जनता ने इक्कीसवी सदी के शुरुआत में राजनीति के महानायक स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की विकासपरक राजनीति को देखा, परखा, सराहा और फिर उससे मुंह भी फेर लिया। शायद २००४ के लोकसभा चुनाव में जनता का यही मूड देखकर अटल बिहारी का राजनीति से मूड आउट हो गया। इसमें पार्टी और रणनीतिकारों की क्या भूमिका क्या रही, यह अलग बात है। पर प्रधानमंत्री के बतौर बीसवीं सदी के अंत में शुरू हुआ अटल का सफर इक्कीसवी सदी की शुरुआत में ही खत्म हो गया। इसके बाद पार्टी ने राजनीति में दुर्गा का किरदार निभा चुकी इंदिरा की पुत्रबधू सोनिया का काल रहा। सोनिया ने मनमोहन को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाकर कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष रहकर दस साल देश को दिशा देने की कोशिश की। पर २०१४ में मिली हार के बाद उनका स्वास्थ्य भी जवाब दे गया और उन्होंने पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष का ताज अपने पुत्र राहुल को सौंप दिया। इसमें खास बात यह है कि इस समय राजनीति ने ऐतिहासिक बदलाव के तहत भाजपा को पूर्ण बहुमत से चुना था। मोदी ने पार्टी में मार्गदर्शक मंडल बनाकर सभी बुजुर्ग नेताओं को इसका सदस्य बना दिया था। अब राजनीति में भाजपा और कांग्रेस दलों के प्रतिनिधि के बतौर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी आमने-सामने हैं।
राजनीति कब किस करवट बैठेगी, इस बात का कोई भरोसा नहीं है। पर यह साफ है कि हर दशक में राजनीति का नया चेहरा देखने को मिल रहा है। सितंबर के महीने में यदि हम राजनेताओं की बात करें तो नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के कदम सब कुछ बयां कर रहे हैं। राहुल गांधी मानसरोवर यात्रा पर शिव की शरण में पहुंचे तो प्रधानमंत्री मोदी इंदौर में मस्जिद में दस्तक देते दिखे। मोदी का दर्द है कि उन्हें प्रधानमंत्री बनने के बाद भी हिन्दुत्व की छवि कहीं २०१९ लोकसभा चुनाव में बेजा नुकसान न पहुंचा दे। तीन तलाक बिल के जरिए भले ही उनकी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में सत्ता की सीढ़ी दशकों बाद हासिल कर ली हो लेकिन २०१९ चुनाव तक इसका असर धुंधला गया तो क्या होगा ? बोहरा समाज के धर्म प्रमुख सैयदना साहब के गले लगकर मोदी को अभी भी यह दरकार है कि देश उनकी प्रधानमंत्री के बतौर तटस्थ छवि को स्वीकार कर ले और उनकी जिम्मेदारी भरे धर्मनिरपेक्ष चेहरे पर अपनी मुहर लगा दे। मोदी ने मस्जिद में अपनी उपलब्धियां भी गिनाईं और सैयदना साहब से अपने पुराने रिश्तों की दुहाई भी दी। यहां तक कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए भी उनकी सैयदना साहब से कितनी करीबी थी, इसका बखान भी किया। मस्जिद में प्रवेश कर उन्होंने यह बयां करने की कोशिश भी की, कि उन्होंने तीन तलाक बिल में बदलाव अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि और मुस्लिम महिलाओं के प्रति उनकी तटस्थ सोच के चलते ही किया था। जम्मू-कश्मीर के प्रति उनकी नीति भी राष्ट्र के प्रति उनकी जिम्मेदारी का निर्वहन है, न कि किसी संप्रदाय विशेष के प्रति कटुता की वजह से। एनसीआर के जिस मुद्दे पर राजनेताओं का एक तबका भले ही उन्हें घेरने की कोशिश कर रहा हो लेकिन यह भी उनका प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए राष्ट्रहित में उठाया गया कदम है। और अब देश की जनता को एकतरफा फैसला लेते हुए मोदी की भावनाओं की कद्र करने का जज्बा पैदा करना चाहिए ताकि २०१९ में वे एक बार फिर ३६० के लक्ष्य को पाकर अपने पद पर अगले पांच साल तक बने रहें। साथ ही देश को नोटबंदी, जीएसटी जैसे फैसले लेकर विकास की राह पर आगे बढाते रहें। पांच साल की खातिर ही शायद मोदी ने सैयदना साहब से मस्जिद में मुलाकात करना मुनासिब समझा। हालांकि जनता की सोच में मोदी की सैयदना साहब से मस्जिद में इस मुलाकात ने कितना बदलाव किया होगा, यह तस्वीर तो बाद में दिखेगी। पर फिलहाल २०१९ चुनाव से पहले मोदी का यह कदम कुछ बदलाव की आहट तो जरूर दे रहा है।
अब हम बात करें देश में कई दशकों तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी के मुखिया राहुल गांधी की। तो राहुल गांधी पार्टी के मुखिया बनने के बाद अपनी सोच और समझ में बदलाव की झलक देश के सामने रखने का कोई मौका नहीं चूक रहे हैं। संसद के सत्र में उन्होंने कांग्रेस की प्रेम की सोच का पैगाम देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को गले लगा लिया। तब प्रधानमंत्री मोदी भी भौचक्के रह गए और राष्ट्र भी अवाक था कि राहुल अब उसी पार्टी को मुंह चिढ़ा रहे हैं जो उन्हें पप्पू बुलाकर ही देश की सत्ता पर काबिज रहना चाहती है। राहुल यहीं नहीं रुके, उन्होंने मोदी सरकार के राफेल सौदे पर भी खूब खरी खोटी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। देश-विदेश हर जगह मिले प्लेटफार्म पर उन्होंने मोदी और उनकी सरकार पर खूब निशाना साधा। मोदी का पार्टी हमेशा जिस कांग्रेस और गांधी परिवार पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप जड़ती रही और गांधी परिवार की छवि को हिन्दुत्व से दूर ले जाने की कोशिश करती रही, राहुल ने भाजपा के इस झूठ का पर्दाफाश करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। अब राहुल ने गुजरात चुनाव से पहले सोमनाथ के मंदिर में मत्था टेका, तो कर्नाटक चुनाव से पहले यहां के हिन्दू मंदिरों में पूजा-प्रार्थना की। अब २०१९ चुनाव से पहले राहुल ने कैलाश मानसरोवर यात्रा कर शायद भोलेनाथ से यही प्रार्थना की होगी कि उनके भोलेपन का बेजा फायदा राजनीति के कुटिल खिलाड़ी न उठा पाएं प्रभु, उन्हें ऐसा आशीर्वाद दो। साथ ही २०१९ चुनाव में कांग्रेस उनके नेतृत्व में गठबंधन के सहारे सत्ता की कुर्सी हासिल कर ले। राजनीति ने खुद भी कभी ऐसा नहीं सोचा होगा कि बचपन से अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ा-लिखा यह युवक एक दिन अपनी छवि में बदलाव के लिए इतना संघर्ष करने की हिम्मत जुटा पाएगा।
पर वक्त और राजनीति जो न कराए सो कम है। मोदी हों या फिर गांधी, सभी के सामने एक ही चुनौती है कि वे देश को अपनी नीति और कार्यशैली का लोहा मनवा सकें। मोदी ने पांच साल में जो फैसले लिए वे भी इसी उपलब्धि को हासिल करने के लिए थे और राहुल गांधी भी यही इच्छा है कि एक दिन देश उन्हें यह मौका जरूर देगा, जब वे अपनी पार्टी के एजेंडे और अपनी कार्यशैली के जरिए देश को नई दिशा देंगे। फैसला जनता को करना है।
बदलाव की बयार यहां भी –
फिलहाल देश बदलाव के दोराहे पर है। २०१९ लोकसभा चुनाव बहुत द्वंद लिए होगा, यह तय है। कांग्रेस विरोधी दलों के साथ भाजपा को कड़ी चुनौती देने को तैयार है। वहीं अब एससी-एसटी एक्ट के विरोध के चलते सपाक्स और अजाक्स भी आमने-सामने हैं। सपाक्स ७८ फीसदी सवर्ण मतों के सहारे भाजपा-कांग्रेस को चुनौती देने को तैयार है तो अजाक्स सवर्णों को वोट न देकर और अपने साथ पिछड़ों की पैरवी कर सशक्त प्लेटफार्म सामने रखने को तैयार है। इस दौरान धर्म प्रतिनिधि पंडित देवकीनंदन ठाकुर का सरकार को आइना दिखाने के लिए सवर्णों के मंच पर आने ने एक बार फिर सामाजिक बदलाव का अनूठा उदाहरण पेश किया है। सामाजिक उथल-पुथल के इस सागर के मंथन में किसके हाथ अमृत कलश आएगा और कौन विषपान करने को मजबूर होगा, यह फैसला अंतर्द्वंद में घिरी जनता को करना है। कहीं यह जहर समाज को जहरीला बनाने का काम तो नहीं करेगा ? यदि ऐसा हुआ तो राजनीति का यह बदलाव पूरे समाज को विकृत करने का काम करेगा। इसकी जिम्मेदारी सत्तालोलुप उन राजनेताओं को लेनी पड़ेगी, जिनके सामने फिलहाल धर्म, संस्कृति, मर्यादा, नियम-कायदे, न्याय सब कुछ बौना नजर आ रहा है।डर इस बात का है कि राजनीति की बदलती यह बयार कहीं पूरी फिंजा में जहर न घोल दे ।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनेतिक विश्लेषक हैं